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At the Feet of The Mother

‘The Mother’ – Chapter 3 (with text in Hindi)

Sri Aurobindo wrote this piece as a letter to Punamchand Shah, a disciple living in Gujarat, on 1 August 1927. In 1928 it was published as the third chapter of The Mother.


THE MOTHER

Chapter 3

जीवनपथ पर सब प्रकार के भय, संकट और विनाश से बचकर आगे बढ़े चलने के लिये दो ही चीजें जरूरी हैं और ये दोनों ऐसी हैं जो सदा एक साथ रहती हैं — एक है मां भगवती की करुणा और दूसरी, तुम्हारी ओर से ऐसा अंतःकरण जो श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण से घटित हो। श्रद्धा तुम्हारी होनी चाहिये विशुद्ध, निश्छल और निर्दोष। मन और प्राण की ऐसी अहंकारयुक्त श्रद्धा जो बड़े बनने की आकांक्षा, अभिमान, दम्भ, अहंमन्यता, प्राण की स्वैरता, वैयक्तिक अभिलाष और निम्न प्रकृति की क्षुद्र वासनातृप्ति से कलंकित हो, ऊर्ध्वगमनाक्षम धूमाच्छन्न अग्निशिखा के समान है जो ऊपर स्वर्ग की ओर उज्ज्वलित नहीं हो सकती। अपने जीवन को यह समझो कि यह भगवत्कर्म के लिये और भगवान् के प्राकट्य में सहायक होने के लिये मिला हुआ है। और किसी चीज की इच्छा मत करो, चाहो केवल भागवत चैतन्यगत विशुद्धता, शक्ति, ज्योति, विशालता, स्थिरता, आनंद और उसका यह तकाजा कि उसके द्वारा तुम्हारा मन, प्राण, शरीर रूपांतरित हो, और कोई चीज मत चाहो, चाहो केवल भागवत, आध्यात्मिक और विज्ञानगत परम सत्य, उस सत्य की सिद्धि पृथ्वी पर और तुम्हारे अंदर और उन सबके अंदर जो पुकारे गये और अनुगृहीत हुए हैं, और उस सत्य की सृष्टि के लिये आवश्यक अनुकूल परिस्थिति तथा समस्त विरोधिनी शक्तियों पर उसकी विजय।

तुम्हारी निष्ठा सच्ची और सर्वांगीण हो। जब आत्मनिवेदन कर रहे हो तो पूर्णतया ही करो; अपनी कोई इच्छा, कोई शर्त, कोई अलगाव मत रखो, जिसमें जो कुछ तुम्हारे अंदर है सब भगवती माता का हो और अहंकार के लिये कुछ भी शेष न रह जाये, न किसी अन्य शक्ति को कुछ दिया जाये।
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने ही पूर्णतर होंगे उतनी ही अधिक दया तुम्हारे ऊपर रहेगी और तुम्हारी रक्षा होगी। और जब भगवती माता का वरद और रक्षक हाथ तुम्हारे ऊपर होगा तब फिर कौन है जो तुम्हारे ऊपर ऊंगली उठा सके या जिससे तुम्हें भय करना पड़े? इसकी अत्यल्प मात्रा भी तुम्हें सब विघ्न-बाधाओं और संकटों से पार कर देगी; इसकी पूर्ण सत्ता से घिरकर तुम अपने रास्ते पर निरापद आगे बढ़े चले जा सकते हो, क्योंकि यह रास्ता माता का है, यहां किसी विभीषिका की चिंता नहीं, किसी शत्रु का भय नहीं — वह चाहे कितना ही बलवान् हो, इस जगत् का हो या अन्य किसी अदृश्य जगत् का। माता के वराभयहस्त का स्पर्श कठिनाइयों को सुयोग में, विफलता को सफलता में और दुर्बलता को अविचल बल में परिणत कर देता है। कारण मां भगवती की दया भगवान् की अनुमति है और आज या कल उसका फल निश्चित है — पूर्वनिर्दिष्ट है, अवश्यंभावी और अकुंठ है।

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Between the age of eighteen and twenty I had attained a conscious and constant union with the divine Presence and that I had done it all alone.