मां भगवती के और भी कई महान् विग्रह हैं, पर उनका अवतरण कराना अधिक कठिन रहा और भू-पुरुष के क्रम-विकास में वे उतनी स्पष्टता के साथ सामने आये भी नहीं हैं। उनमें अवश्य ही कुछ विग्रह ऐसे हैं, जो विज्ञान-सिद्धि के लिये अगत्या आवश्यक हैं — सर्वापेक्षया अधिक आवश्यक वह है जो माता के परम भागवत प्रेम से प्रवाहित होनेवाले रहस्यमय परम उल्लासमय आनंद का विग्रह है, यह वह आनंद है जो विज्ञान चैतन्य उच्चतम शिखर और जड़-प्रकृति के अधस्तम गह्वर के बीच का महदन्तर मिटाकर दोनों को मिला सकता है, अनुपम परम दिव्य जीवन की कुञ्जी इसी आनंद के पल्ले है और अब भी यही आनंद अपने गुप्त धाम से विश्व की अन्य सभी महाशक्तियों के कार्य का सहारा बना हुआ है। परंतु मानव प्रकृति बद्ध, अहंतायुक्त और तमोग्रस्त होने के कारण इन महती सत्ताओं को ग्रहण करने या उनके प्रचण्ड कर्म का आधार बनने में असमर्थ है। जब ये चार महाशक्तियां रूपांतरित मन, प्राण, शरीर में अपनी सुसंगति और मुक्त गति प्रस्थापित कर लेंगी, तभी वे अति दुर्लभ इतर शक्तियां पार्थिव गतिधारा में प्रकट हो सकती हैं और विज्ञान-कर्म संभव हो सकता है। कारण माता के सब विग्रह जब उनके अंदर एकत्र होकर प्रकट होते, उनकी भिन्न-भिन्न कर्मधाराएं एक ही सुसंगत ऐक्य में परिणत होती और ये विग्रह उनके अंदर अपने विज्ञानमय देवस्वरूपों में उठ आते हैं, तभी माता अपनी विज्ञानमयी महाशक्ति के रूप में प्रकट होती हैं और तभी वे अपने अकथ अलख धाम से अपनी ज्योतिर्मयी परा सत्ताओं को बरसाती हुई नीचे ले आती हैं। तभी मानव प्रकृति बदलकर सशक्तिक देवप्रकृति बन सकती है, क्योंकि विज्ञानमय सत्यस्वरूप चैतन्य और सत्यस्वरूपा शक्ति के सभी मूल तार एकत्र हो जाते हैं और जीवन की वीणा सनातन के संगीत के साथ स्वर में स्वर मिलाकर बजने के योग्य हो जाती है।
यदि तुम यह रूपांतर चाहते हो तो अपने-आपको बिना किसी दोषदृष्टि या विरोध-बाधा के, माता और उनकी महाशक्तियों के हाथों में सौंप दो और अपने अंदर उन्हें अपना काम बेरोक करने दो। तीन चीजें तुम्हारे साथ होनी चाहियें — चेतना, नमनशीलता और निःशेष आत्मसमर्पण। तुम्हें अपने मन, बुद्धि और अंतरात्मा में, हृदय और प्राण में, शरीर के एक-एक रन्ध्र तक में सचेत होना होगा, माता और उनकी महाशक्तियों तथा उनके कार्यों की सुधि रखनी होगी; क्योंकि तुम्हारी अबोधता में और तुम्हारे अचेत अंगों और अवस्थाओं में भी यद्यपि वे तुम्हारे अंदर कर्म कर सकती और करती हैं, तथापि यह बात कुछ है और जब तुम उनके साथ जीता-जागता संबंध बनाये हुए रहते हो तब वह बात कुछ और। तुम्हारी सारी प्रकृति मां का स्पर्श पाने के लिये सुनम्य होनी चाहिये — अहंमन्य अज्ञ मन की तरह संशयापन्न नहीं जो बात-बात में शंका, अविश्वास और कुतर्क किया करता और अपने प्रबोध और परिवर्तन का आप ही शत्रु होता है; अपनी ही चाल से चलनेवाले प्राण की तरह हठी नहीं जो प्रत्येक भागवत प्रभाव के विरुद्ध अपनी प्रतिकूल कामना और दुर्वासना को प्रतिनियत किया करता है; मनुष्य की उस भौतिक चेतना की तरह रुकावट डालनेवाले और अक्षमता, जड़ता और तामसिकता में गड़े रहनेवाले नहीं जो आगे बढ़ने का रास्ता रोके रहती और अपनी ही क्षुद्रता और अंधता की मस्ती में आसक्त रहती हुई ऐसे प्रत्येक सत्स्पर्श के विरुद्ध चिल्ला उठती है जो निर्जीव जीवनक्रम में या उसके निष्प्राण आलस्य और घोर निद्रा में बाधक होता है। अपनी अन्तर्बहिःसत्ता निःशेष समर्पित कर देने से तुम्हारे अंग-प्रत्यंग में वह नमनशीलता आ जायेगी; और उस ज्ञान और ज्योति की ओर, उस महाशक्ति की ओर, उस सामंजस्य और सौंदर्य की ओर, उस संपूर्णता की ओर, जिनके प्रवाह ऊपर से बहे चले आते हैं, सतत उद्घाटित करते रहने से चैतन्य तुम्हारे अंदर सर्वत्र जाग उठेगा। शरीर तक जाग उठेगा और अंत को उसकी चेतना विज्ञान की परमा चिच्छक्ति के साथ एक हो जायेगी — उससे अलग कोई नीचे की चीज न रहेगी, शरीर माता की सब शक्तियों को अपने ऊपर से और नीचे से और अगल-बगल चारों ओर से अपने अंदर प्रवाहित और ओत-प्रोत परिप्लुत अनुभव करेगा और परम प्रेम और परमानन्द से पुलकित होता रहेगा।
परंतु सावधान, अपने इस क्षुद्र पार्थिव मन से माता को समझने और परखने की चेष्टा मत करो। मन का यह स्वभाव है कि यह अपने नाप और मान से, अपने संकीर्ण तर्क वितर्क और प्रमादी धारणा से अपने अथाह, दर्पभरे अज्ञान और अपने तुच्छ ज्ञान की सर्वोपरि मान्यता से समझना और परखना चाहता है उन चीजों को जो सर्वथा उसकी कक्षा से बाहर हैं। धुंधला-सा प्रकाश पानेवाली अंधता के बन्दीगृह में आबद्ध मन भागवती शक्ति के पदविक्षेपों की अबाध गति को बहुधा नहीं समझ-बूझ सकता। मन की लुढ़कती-पुढ़कती समझ माता की दृष्टि और कर्म की द्रुत गति और विविधता का अनुसरण नहीं कर सकती, उनकी गति का मान मानवी मन का पैमाना नहीं है। माता के बहुविध विभिन्न रूपों के द्रुत परिवर्तन, उनके छन्द-निर्माण और छन्द-भंग, उनकी क्षिप्रता के द्रुत वेग और उनके गतिरोध, किसी की समस्या का विचार किसी प्रकार से तो किसी दूसरे की समस्या का विचार किसी दूसरे प्रकार से — ऐसे उनके नानाविध मीमांसा-प्रकार, उनका कभी एक धागे को उठाना और फिर तुरत रख देना और दूसरे धागे को उठाना-रखना और इस तरह सब धागों को एक सूत्र में ग्रथित करना, इन सब बातों को ठीक तरह से न समझने के कारण घबराया हुआ मन नहीं देख सकता कि कैसे परमा शक्ति अज्ञान की इस गहनता को भेदकर चक्कर काटती हुई बड़ी तेजी के साथ ऊपर परमा ज्योति की ओर चली जा रही है। इसलिये यही अच्छा है कि तुम अपनी अंतरात्मा उनकी ओर खोल दो और यही यथेष्ट है कि अपनी चैत्य प्रकृति के द्वारा उन्हें अनुभव करो और चैत्य दृष्टि से उन्हें देखो, ये ही सत्य के सम्मुख होते और उसके इशारे पर चलते हैं। तब माता स्वयं ही तुम्हारे मन, हृदय, प्राण और शरीर चेतना को उनके चैत्य तत्त्वों के द्वारा प्रबुद्ध कर देंगी और अपनी रीति-नीति और प्रकृति भी दिखा देंगी।
अज्ञ मन का फिर यह आग्रह होता है कि भागवती शक्ति को सब काम, सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता के संबंध में जैसी हमारी थोथी मोटी समझ है, उसके अनुसार ही सदा करना चाहिये; ऐसी भूल से भी तुम बचे रहो। कारण हमारा मन व्याकुल रहता है प्रत्येक अवसर पर अद्भुत करामात, अनायास सिद्धि और चकाचौंध करनेवाला जगमग प्रकाश ही देखने के लिये; अन्यथा उसे यह विश्वास ही नहीं होता कि यहां भगवान् विराजते हैं। माता अज्ञान के साथ बरत रही हैं अज्ञान के ही क्षेत्र में, जहां वे उतर आयी हैं, सर्वथा ऊपर ही नहीं हैं। अपने ज्ञान और शक्ति को वे अंशतः छिपाये रहती और अंशतः प्रकट करती हैं, अनेक बार अपने यंत्रों और विभूतियों पर उन्हें प्रकट नहीं होने देतीं और जिज्ञासु मन, अभीप्सु अंतरात्मा, युयुत्सु प्राण तथा पाशबद्ध दुःखी पार्थिव प्रकृति के रास्ते से ही चलती हैं, जिसमें वे इन सबको रूपांतरित कर सकें। कुछ ऐसे विधान हैं जो एक परमा इच्छाशक्ति के द्वारा ही निर्दिष्ट हैं जिनका पालन करना होगा; बहुत-सी ऐसी जटिल ग्रंथियां हैं जिन्हें खोलना होगा, वे अकस्मात् काट नहीं डाली जा सकतीं। इस क्रमविकास-शील पार्थिव प्रकृति पर असुर और राक्षस अधिकार जमाये हुए हैं, उन्हीं के दीर्घकाल से अधिकृत गढ़ और प्रदेश में उन्हींकी शर्तों पर उनका सामना करके उन्हें जीतना होगा; हमारे अंदर जो मानव-भावापन्न जीव है उसे ले चलना और प्रस्तुत करना होगा, जिसमें वह अपनी बद्धताओं को पार करे। वह इतना दुर्बल और तमोग्रस्त है कि वह अकस्मात् किसी ऐसी स्थिति में नहीं उठाकर लाया जा सकता जो स्थिति उसकी वर्तमान स्थिति से बहुत ऊर्ध्व है। भागवत चैतन्य और शक्ति मौजूद हैं और प्रति क्षण साधन-पथ में जब जो कुछ आवश्यक है उसे करते हैं, सदा-सर्वदा यथानिर्दिष्ट पदक्रम के साथ आगे बढ़ते हैं और अपूर्णता के बीच में भावी पूर्णता को ही साधित करते हैं। पर विज्ञानशक्ति का विज्ञानमयी प्रकृतियों के साथ साक्षात् व्यवहार तभी बन सकता है जब तुम्हारे अंदर विज्ञान अवतीर्ण हो लेगा। यदि तुम अपने मन के पीछे चलोगे तो मन माता को, उनके तुम्हारे सामने प्रकट होने पर भी नहीं पहचान सकेगा। पीछे चलो अपने अंतरात्मा के, मन के नहीं; उस अंतरात्मा के जो सत्य के अनुकूल होता है, उस मन के नहीं जो बाहरी दिखावे पर उछला करता है; भागवती शक्ति का भरोसा करो, वे ही तुम्हारे अंतःस्थ देवोचित तत्त्वों को मुक्त करेंगी और उन सबको भागवती प्रकृति की अभिव्यक्ति के रूप में ढाल देंगी।
विज्ञानमय रूपांतर भगवनिर्दिष्ट है और पार्थिव चेतना के विकासक्रम से उसका होना अनिवार्य है; कारण इसकी ऊर्ध्वमुखी गति समाप्त नहीं हुई है, मन ही इसका सर्वोच्च शिखर नहीं है। परंतु इस रूपांतर के होने, रूप ग्रहण करने और चिरस्थायी होने के लिये यह आवश्यक है कि नीचे से उसके लिये पुकार हो ऐसी उत्कण्ठा के साथ कि जब वह ज्योति अवतीर्ण हो तो उसे पहचाने, स्वीकार करे, अस्वीकार न करे; साथ ही यह आवश्यक है कि इसके लिये ऊपर से भगवान् की अनुमति हो। इस अनुमति और इस पुकार के बीच जो शक्ति मध्यस्थता का काम करती है वह भागवती माता की सत्ता और शक्ति है। केवल माता की ही शक्ति, कोई मानवी प्रयास और तपस्या नहीं, आच्छादन को छिन्न और आवरण को विदीर्ण कर पात्र को स्वरूप में गढ़ सकती हैं और इस अंधकार और असत्य और मृत्यु और क्लेश के जगत् में ला सकती हैं सत्य और प्रकाश और दिव्य जीवन और अमृतत्व का आनंद।