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At the Feet of The Mother

‘The Mother’ – Chapter 6 (d) Mahakali (text in Hindi)

महाकाली की प्रकृति और है। बृहत्ता नहीं बल्कि उत्तुंगता, ज्ञानवत्ता नहीं बल्कि शक्तिमत्ता और बलवत्ता उनकी अपनी विशेषता है, उनके अंदर एक अति तुमुल तीव्रता है, अति प्रचंड आवेग है कृतसंकल्प की पूर्ण सिद्धि का; एक दिव्य हिंसा-पिपासा है जो प्रत्येक सीमा और विघ्नबाधा को चूर्ण-विचूर्ण करने के लिये महावेग से प्रधावित होती है। उनका सारा दिव्यत्व उछल पड़ता है महारुद्र कर्म की रौद्री महाप्रभा के रूप में; वे हैं ही द्रुतता के लिये, सद्यःफलदायिनी कर्मपद्धति के लिये, क्षिप्र और ऋजु प्रहार के लिये, उस सम्मुखीन आक्रमण के लिये जो मैदान साफ करता जाता है। असुर के लिये उनका रूप बड़ा ही भयंकर है, भगवान् के द्रोहियों के लिये उनका चित्त बड़ा ही निर्मम और निदारुण है। कारण वे समस्त भुवनों की रणचंडी हैं जो रण से पश्चात्पद नहीं होतीं। कोई त्रुटि या दोष वे बर्दाश्त नहीं कर सकतीं, इसलिये मनुष्यों में जो कुछ ऐसा है जो अनुकूल नहीं होना चाहता उसके साथ उनका बड़ा कठोर व्यवहार होता है और जो कुछ ज्ञानहीन और तमोग्रस्त बना रहता है उसके साथ वे बड़ी निठुरता से पेश आती हैं; विश्वासघात, मिथ्याचार और ईर्षाद्वेष पर उनका कोप आशु और भीषण होता है, द्वेषबुद्धि पर तुरत उनके शूल का प्रहार होता है। भागवत कर्म में औदासीन्य, अवहेलन और आलस्य उन्हें सह्य नहीं और असमय सोनेवाले और समय पर काम न करनेवाले दीर्घसूत्री को, प्रयोजन होने पर, वे ताड़न से तीव्र वेदना उत्पन्न करके जगा देती हैं। जो भाव द्रुत, ऋजु और निष्कपट होते हैं, जो गतियां अकुंठ और अव्यभिचारिणी होती हैं, जो अभीप्सा उज्ज्वलित हो उठती है, वे सब महाकाली के संचार हैं। उनकी मनोवृत्ति अदम्य है, उनकी दृष्टि और इच्छाशक्ति श्येन पक्षी की उड़ान-सी ऊंची और बड़ी दूर तक फैली हुई होती है। ऊर्ध्व पथ में उनके पदक्षेप अति द्रुत होते हैं और उनकी भुजाएं मारने और तारने को आगे बढ़ी रहती हैं। कारण वे भी तो माता ही हैं और उनका स्नेह वैसा ही तीव्र है जैसा कि उनका क्रोध, और कारुण्य उनका अति गभीर और तुरत उमड़ पड़नेवाला होता है। जब उन्हें स्वसामर्थ्य के साथ कहीं भी दखल देने का अवसर मिलता है तब एक क्षण में संहतिविहीन पदार्थों के समान नष्ट हो जाती हैं वे सब बाधाएं जो साधक को आगे बढ़ने से लाचार किये रहती हैं और वे सब दस्यु भी मृतप्राय हो जाते हैं जो साधक पर आक्रमण किया करते हैं। उनका कोप विरोधियों को कंपानेवाला और उनके आवेश का भीषण भार दुर्बल और कातर को पीड़ा पहुंचानेवाला होता है, परंतु जो महान् बलवान् और सत्पुरुष हैं वे उनकी श्रद्धा भक्ति और पूजा करते हैं; क्योंकि वे अनुभव करते हैं कि जो कुछ उनके विद्रोह का कारण है उसे ठोक-पीटकर वे समर्थ और निर्दोष सत्य बना देंगी, जो कुछ कुटिल और विपरीत है उसे वे अपने हथौड़े की चोट से सीधा कर देंगी और जो कुछ अशुद्ध और सदोष है उसे निकाल बाहर कर देंगी। उन्हींकी बदौलत यह बात है कि जो काम सदियों में होनेवाला होता है वह एक दिन में हो जाता है; इनके बिना आनंद महान् और गंभीर या मृदु मधुर और सुन्दर हो सकता है पर उस आनंद के जो परम कैवल्यस्वरूप तीव्रतम भाव हैं उनका प्रज्वलित उल्लास उसमें नहीं रह सकता। ज्ञान को वे ही विजयशालिनी शक्ति प्रदान करती हैं, सौंदर्य और सुसंगति को ऊर्ध्वमुखीन और ऊर्ध्वगामिनी गति प्रदान करती हैं और संसिद्धि के मंद और कष्टसाध्य साधन में वह वेग भर देती हैं कि जिससे साधक की शक्ति बहुगुणित होती और लंबा रास्ता छोटा हो जाता है। परतम आनंद, उच्चतम उच्चता, महत्तम लक्ष्य और विशालतम दृष्टि से न्यून किसी भी बात से उन्हें संतोष नहीं होता। इसलिये भगवान् की जो विजयिनी शक्ति है वह उन्हीमें है और उन्हींके तेज, आवेग और सत्वरता के प्रसाद से यह संभव है कि हमारे प्रयास की महत्सिद्धि किसी कालान्तर में नहीं, बल्कि अभी सत्वर साधित हो सकती है।

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There is no harm in the vital taking part in the joy of the rest of the being; it is the participation of the vital that makes it dynamic and communicates it to the external nature.